गौरा-गौरी, शिव विवाह का प्रतीक। गौरा छत्तीसगढ़ की गोंड जनजाति का परंपरागत त्योहार है

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     शिव विवाह का प्रतीक, गौरा-गौरी

    शिव विवाह का प्रतीक, गौरा-गौरी

    गौरा छत्तीसगढ़ की गोंड जनजाति का परंपरागत त्योहार है। लेकिन गांवों में इसे सभी जाति व वर्ग के लोग मिलजुल कर मनाते हैं। सुरहोती अर्थात् देवारी का प्रारंभिक दिन गांवों में गौरा -गौरी की सुंदर झांकियां निकाली जाती है। गांव में उन्हें लोकसंगीत और वाद्य-यंत्रों के साथ गौरा-गौरी की बारात निकाली जाती है। सच में छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति का यह लोकरूप मनभावन होता है। गौरा-गौरी की झांकियां गौरा चौरा पर स्थापित कर दी जाती है। उसके बाद पूजा अर्चना की जाती है। गांव के महिलाओं के लोकगीत, ढोलक की थाप और पटाखों की धूम के साथ सारा जन समूह थिरक उठते हैं। 

    भगवान शिव की महिमा पुराणों में कही गई है। रावण की शिवभक्ति भी प्रसिद्ध है। किरातवेशधारी अर्जुन पर शिव ने कृपा की थी। शिवभक्ति के कारण ही गुण निधि मृत्यु के मुख से वापस आया। मंगल गौरी के व्रत में भी शिव के प्रति समर्पण बताया गया है। कहा गया है कि ज्योतिर्लिंगों को दर्शन करने या स्मरण करने से सात जन्मों के पाप धुल जाते हैं। 

    छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति भी इससे अछूती नहीं है। विशेषकर गोंडों के भगवान महादेव प्रमुख देवता है। शिवोपासना का सबसे बड़ा प्रमाण भी यही गौरा है। विवाह के समय द्वारा बनाया गया कांसी का ध्वज भगवान शिव के त्रिशूल होने का संकेत भी देता है। विवाह के समय गोबर का छेना (कंडे) लटकाया जाना शिव के डमरू होने का प्रतीक कहा जाता है। देवारी त्योहार के पहले 9 दिनों तक महिलाएं इकठ्ठी होकर लोकगीत गाते हैं। गौरा को जगाने का काम किया जाता है। गौरा जगाने, सुलाने से लेकर फूल चढ़ाने तक कार्य संपन्न होता है। गौरा चौरा को गोबर पानी से लीप दिया जाता है। धूप दीप दिखाकर उसे पुष्प – पुष्पहार से सजा दिया जाता है। 

    क्वारी मिट्टी लाने के नियम बनाए गए हैं। बांबी की सुखी मिट्टी ही इसके लिए उपयुक्त होती है। कहा जाता है कि कुंवारी लड़कियां ही इस मिट्टी को खोदकर नए दुकानों में लाती है। दुकानों पर नया सफेद कपड़ा ढक दिया जाता है। बाजे गाजे के साथ गौरा चौरा पहुंचकर चौरा के चारों ओर परिक्रमा की जाती है और गीत गाया जाता है। लोकगीत के साथ सुखी मिट्टी का टोकरा बैगा के घर पहुंचा दिया जाता है। बैगा रंग-बिरंगी कागजों से सजाकर गौरा गौरी की मूर्ति गढ़ता है। 

    छत्तीसगढ़ की संस्कृति से गौरा-गौरी की पूजा की जाती है। ये प्रतिमाएं शिव पार्वती की प्रतीक है। ईसर राजा अर्थात् भगवान शिव जी दूल्हे के रूप में सजे हुए हैं और गौरा रानी पार्वती दुल्हन के रूप में सजे हुए हैं। गांव का सारा जनसमूह राजा रानी के स्वागत में उमड़ पड़ता है। लोकगीतों का आशय भगवान गौरा गौरी की प्रशंसा करना है। गीतों में अन्य लोक देवताओं का भी उल्लेख रहता है। लोकगीत कानों में गूंजते ही लोग घर से निकल पड़ते हैं और बारात में शामिल हो जाते हैं। 

    गौरा छत्तीसगढ़ी संकृति का गौरव है। नाम सुनते ही हृदय सम्मान से झुक जाता है। छत्तीसगढ़ के गांवों में यह आयोजन प्रतिवर्ष होता है। गौरा प्रतिवर्ष नई उमंग लेकर आता है। गौरा की झांकी को सामने से देखने के लिए मन मचल उठता है। गांव का बैगा गौरा-गौरी की प्रतिमाएं बनाता है। उसकी कला कौशल देखते ही बनती है। प्रतिमाएं बनने पर पूजा अर्चना करने और गौरा चौरा तक स्थापित करने की सारी जवाबदारी बैगा की होती है। परघाने से पूर्व प्रतिमाओं को स्थान से हटाने का कार्य आसन डोलना कहलाता है। परघावनी के साथ पूरे गांव का परिभ्रमण कर यह गौरा चौरा के पास समाप्त होती है। परघवनी के समय आज भी अंखरा विद्या कहीं-कही देखने मिलती है। 

    सप्तनदी के सात वचनों को वधू पूरा करने में वचनबद्ध होते हैं। गौरा सिर पर रखकर कुंवारी लड़कियां 7 बार गौरा चौरा की परिक्रमा करके गौरा-गौरी की प्रतिमा रख दी जाती है। ईसर राजा और गौरी रानी के बारात स्वागत का कार्यक्रम पूर्ण हो जाता है। नए परिधान, फटाखों की धूम और दीपों की कतारें यही है, दीपों का उत्सव दीपावली। यही है गौरा का विराम स्थल। गौरा-गौरी प्रकट हो चुके हैं, नर नारियों की एक ही लालसा होती है कि वह यह गौरा गौरी की आशीर्वाद मिल जाए।

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